भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अभी तक जब हमें जीना ना आया / 'नश्तर' ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
अभी तक जब हमें जीना ना आया
भरोसा क्या के कल आया न आया
जले हम यूँ के जैसे चोब-ए-नम हों
चराग़ों की तरह जलना न आया
ग़ुलेलें ला के बच्चे पूछते हैं
परिंदा क्यूँ वो दोबारा न आया
मैं क्या कहता के सब के साथ में था
अयादत को भी वो तन्हा न आया
इहाता चहार-दीवारी अँधेरा
किसी जानिब भी दरवाज़ा न आया
वो पहले की तरह बिछड़ा है अब भी
मगर अब के हमें रोना न आया
ख़जाना ले उड़ा चोरों का जत्था
पलट कर फिर अली-बाबा न आया