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अभी तक जब हमें जीना ना आया / निश्तर ख़ानक़ाही
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अभी तक जब हमें जीना ना आया
भरोसा क्या के कल आया न आया
जले हम यूँ के जैसे चोब-ए-नम हों
चराग़ों की तरह जलना न आया
ग़ुलेलें ला के बच्चे पूछते हैं
परिंदा क्यूँ वो दोबारा न आया
मैं क्या कहता के सब के साथ में था
अयादत को भी वो तन्हा न आया
इहाता चहार-दीवारी अँधेरा
किसी जानिब भी दरवाज़ा न आया
वो पहले की तरह बिछड़ा है अब भी
मगर अब के हमें रोना न आया
ख़जाना ले उड़ा चोरों का जत्था
पलट कर फिर अली-बाबा न आया