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अभी भी और कुछ देना है / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
कुछ भी बचाकर नहीं रखना है
सब कुछ उसे सौंप देना है
यह अटूट विश्वास कि वह सब कुछ लेगा
पी जाएगा झरने की तरह उमड़ते वेग को
इतना कुछ पैदा होता है
इतना कुछ दिया जाता है
फिर भी ख्वाहिश बची हुई है कि और कुछ देना है
कोई ताकत जैसे कुलांचे भरते हुए
बहुत दूर चली जाती है
फिर लौटती है
हर दिन प्यार नये तरीके से साथ निभाता है
कभी खत्म न होनेवाली चीज मेरी साथी बने
ऐसी इच्छा से मैं तुम्हें गले लगाता हूं
सारी धरती मेरे तन को ढक लेती है
हमारा प्यार चुप हो जाता है।