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अभी रूठी हुई लगती है सचमुच रागिनी अपनी / कैकैलाश झा 'किंकर'
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अभी रूठी हुई लगती है सचमुच रागिनी अपनी
मुझे तो लग रहा है मुझमें ही कोई कमी अपनी।
चले आये शहर से गाँव तो आदत बदलनी है
तभी तो लग सकेगा दिल, मिलेगी हर ख़ुशी अपनी।
क़वल ही मैं सम़झ जाता हूँ सारी चाल दुश्मन की
उभर आती है जासूसी नज़र की बानगी अपनी।
मुझे गुमराह कोई भी कभी कर ही नहीं सकता
किसी भी लोभ में फँसती नहीं है ज़िन्दगी अपनी।
ख़बर अच्छी मिले अख़बार में हर रोज़ पढ़ने को
विफल होती गयी है आज तक यह वन्दगी अपनी।