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अभी संस्करण कई यहां तानाशाहों के / राघवेन्द्र शुक्ल

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जीवन है मझधार में
जिन पर नैया पार लगाने का जिम्मा वह
डूबे मेघ-मल्हार में।

ताला टूट रहा है हर दिन,
धुर्रा छूट रहा है निशिदिन,
रिक्त देश की पीठ बज रही
धिनक-धिनक धिन,
धिनक-धिनक धिन।

अधिनायक जयकार में,
राष्ट्रगान की धुन पर मोहित जन-गण-मन यह
थिरक रहा अन्हार में।

घड़ियालों ने छोर संभाला,
आंसू बेचे, फंदा डाला।
मछली फंसी, मगर मगरों के
लिए खुला हर जाला-ताला।

डाकू चौकीदार में
घायल होकर देश मसीहा ढूंढ रहा क्यों
बहुरूपिये किरदार में।

आडम्बर का खेल रचा है,
धूल गगन तक जा पहुंचा है,
झूठ की वंशी बजा रहा है,
सत्य-सत्य का शोर मचा है।

गीदड़-सी ललकार में
देख रहा है विश्व वीरता जिनकी प्रतिदिन
खून सने अखबार में।

जैसा है कर्ता, प्रतिकर्ता
उसी रूप का कर्ता-धर्ता।
स्वप्न-हरण के ढंग पुराने
नए-नए आते अपहर्ता।

उत्तरवर्ती अधिकार में,
अभी संस्करण कई यहां तानाशाहों के
बैठे हुए कतार में।