भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अभूतपूर्व / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऐसा
कभी हुआ नहीं —
पंगु हो गये हों शब्द,
पैरों वाले शब्द
चलने-दौड़ने वाले शब्द,
एक नहीं
अनेक-अनेक शब्द !

ऐसा
कभी हुआ नहीं —
निरर्थक हो गये हों
शब्द,
विविध भंगिमाओं वाले
विविध अर्थ-गर्भी शब्द,
ऐसे खोखले हो गये हों,
बेअसर
मात्र चिन्ह-धर !

शब्द
बैसाखी लगाकर नहीं चलते,
उनके पदों में
पंख होते हैं,
सुदूर असीम आकाश में
सौ-सौ गज़ उछलते हैं !
गहनतम खाइयों को
लाँघ जाते हैं,
बार-बार
अनमोल माणिक
बाँध लाते हैं !

ऐसे शब्द
ऐसे तीव्रगामी शब्द
ऐसे तिमिर-भेदी शब्द
कभी हुआ नहीं
लँगड़ा गये हों,
चकरा गये हों
ठंडा गये हों !

समूची ज़िन्दगी की
घनीभूत पीड़ा भरे
शब्द,
इस क़दर
छूँछे हो गये हों !
बे-तरह
हवा में खो गये हों !