भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अमन की कोई आख़री गुंजाइश नहीं होती / उत्‍तमराव क्षीरसागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हवाओं का झूलना
वक्‍़त - बेवक्‍़त
अपनी उब से, अपने हिंडोले पर


इन हवाओं को
मि‍ला होता रूख, तो ज़रूर जाती
कि‍सी षड्यंत्र में शामि‍ल नहीं होती


हवाओं में
लटकी हैं नंगी तलवारें
सफ़ेद हाथ अँधेरों के
उजालों की शक्‍ल काली


अमन की कोई आख़री गुंजाइश नहीं होती ।

                               - 1999 ई0