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अमरीकी साम्राज्यवाद का पेट फटेगा / केदारनाथ अग्रवाल

वह संस्कृति जो
वन संस्कृति की मात-पिता है,
बूढ़ी होकर
हमें विरासत अपनी देकर
भूतकाल में समा गई है
युवती बनकर
सपने में ही आ जाती है
दुखियारे जीवन के पास।
आँसू पोंछ
ताप श्रम हरकर
थोड़ी मीठी शहद चटाकर
हमें मोह लेती है हँसकर।
हम उसकी सुधि में जीते-जगते रोते हैं,
जैसे कोई बिरही रोवे प्राण-प्रिया को।
वर्तमान के कठिन सत्य को
भूल-भूलकर
त्याग-त्याग देते हैं प्रतिदिन;
नहीं सिद्ध करते यथार्थ को
समर जीतकर
वर्ग-भेद का
क्योंकि अभी सामंती पगड़ी
युग के सिर पर धरी हुई है,
और छली साम्राज्यवाद भी
युग का शासन अगुआए हैं
और हमारी मति-गति दोनों बिकी हुई है
इसीलिए तो एटली, ट्रूमन शूमन
देश-देश की राजनीति की
नाव खे रहे हैं उल्टी ही।
इसीलिए तो यह दुनिया अब
दो वर्गों में बँटी हुई है
एक वर्ग पूँजीवादी है
और दूसरा जनवादी है
और इन्हीं दो वर्गों में संघर्ष मचा है
पूँजीवाद लिए एटमबम
डालर की रोकड़ उधार दे
डालर एटमबम के बल पर
दुर्बल राज्यों को धमकाकर
चाह रहा है ट्रूमैनी साम्राज्यवाद से
विश्व हड़पना
जनता को आर्थिक शोषण का जहर पिलाकर
मार डालना
राष्ट्रसंघ को अपना बूचड़घर करार दे
जनवादी रूसी प्रदेश की खाल खींचना।
और उधर शोषित शासित
अपने फौलादी पंजों के घन से
मार रहे हैं पूँजीवादी सरकारों को
एक-एक कर

और श्रमित का नया मोरचा
नहीं हराए हार रहा है।
एक युद्ध निश्चय ही होगा
दो संस्कृतियाँ टकराएँगी
अमरीकी साम्राज्यवाद का पेट फटेगा
सामंती पगड़ी उतरेगी
जनवादी संसार बनेगा
युग का शासन श्रमजीवी बलवान करेगा
फिर यथार्थ का सत्य तपेगा
जन प्रतिजन की आजादी का
स्वप्न फलेगा
फूलों के अंगों पर छूरी नहीं चलेगी
खून किसी का नहीं बहेगा
कवि गाएँगे निर्माणों के गीत अनूठे
और साथ ही कर्म करेंगे उत्पादन का
मुद मंगल का,
कोटि-कोटि जीवन हितकारी
अतः आज कवि इस कविता का
मानव से कहता है : दौड़ो
बीत गई संस्कृति के उर पर
नव संस्कृति की हलचल लेकर
और उसी से युग को भेंटो
युग को बरतो।

रचनाकाल: संभावित १९५१