अमल गल्प / नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती
चारों ओर अँधेरा है
माँ मुझे अपने पास खींच लो
छुटपन में जिस तरह कहती थीं
आज फिर उसी तरह कहो
कि है, कहीं है करुणा-स्निग्ध
छलछलाती उजाले की नदी।
इस रात के दाँतों की तीखी धार में
भले कितनी ही विद्रूपता रहे
धूप की अमल भाषा भी है रात के अवसान पर।
माँ, मुझे उम्मीद दो, उम्मीद
कहो कि केवल दुःख ही नहीं है इस अभागी दुनिया में
दुःख की दुनिया में पारुल दीदी का प्यार भी है।
चारों ओर अन्धेरा है
माँ मुझे अपने पास खींच लो
छुटपन में जिस तरह कहती थीं
आज फिर उसी तरह कहो
कि सारी अवज्ञाओं से मुक्ति मिलेगी
सात भाई चम्पा के संसार को,
माँ, मैं अन्धेरे को धूप में बदलूँगा जिस अमल गल्प से
तुम दे जाओ वह गल्प
चारों ओर अन्धेरा है
माँ, मैं तुम्हारे पास आना चाहता हूँ।
मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी