अमानत मोहतसिब के घर शराब-ए-अर्ग़वाँ रख दी / साइल देहलवी
अमानत मोहतसिब के घर शराब-ए-अर्ग़वाँ रख दी
तो ये समझो कि बुनियाद-ए-ख़राबात-ए-मुग़ाँ रख दी
कहूँ क्या पेश-ए-ज़ाहिद क्यूँ शराब-ए-अर्ग़वाँ रख दी
मिरी तौफ़ीक़ जो कुछ थी बराए मेहमाँ रख दी
यहाँ तक तो निभाया मैं ने तर्क-ए-मय-परस्ती को
कि पीने को उठा ली और लीं अंगड़ाइयाँ रख दी
जनाब-ए-शैख़ मय-ख़ाना में बैठे हैं बरहना-सर
अब उन से कौन-पूछे आप ने पगड़ी कहाँ रख दी
तुम्हें परवा न हो मुझ को तो जिंस-ए-दिल की परवा है
कहाँ ढूँढूँ कहाँ फेंकी कहाँ देखूँ कहाँ रख दी
लगा लेंगे उसे अहल-ए-वफ़ा बे-शुबह आँखों से
अगर पा-ए-अदू पर उस ने ख़ाक-ए-आस्ताँ रख दी
इधर पर नोच कर डाला क़फ़स में उफ़ रे बेदर्दी
उधर इक जलती चिंगारी मियान-ए-आशियाँ रख दी
ज़मीर उस का डुबो देगा उसे आब-ए-ख़जालत में
वफ़ादारी की तोहमत ग़ैर पर क्यूँ बद-गुमाँ रख दी
हवस मस्ती की ‘साइल’ को नहीं काफ़ी है थोड़ी सी
प्याले में अगर पस-ख़ुर्दा-ए-पीर-ए-मुग़ाँ रख दी