भो और स्वामित्व ही हमको भोगते हैं.
हमको बूढा और भिखारी बना कर
स्वयम यथावत हैं.
सोचो कौन किसको भोग रहा है.
फ़िर भी कितने विवश हैं ,
हम सब जड़त्व के अन्धकार में,
कीड़ों की तरह बजबजाने
और परस्पर एक दूसरे से टकराने में,
हाय रे ! मानव मन ,
कषायों के द्वारा प्रति पल पीडन में भी.,
तू कितना गहरा रस लेता है.
विकारों में सुख की खोज तेरा एक मात्र लक्ष्य है.
अन्तिम सत्य कहता है
कि कहीं भी और किसी भी मोह में मत रुको.
किसी पर भी रुकना ,
उसे बाँधना या उससे बंधना है.
जहों बंधन है, वहां बिछुड़न भी है.
बंधना केवल ध्रुव में ही सम्भव हो,
यही हमारी आत्मा का,
आंतरिक और अन्तिम भाव हो.
ऐसी तापसी प्रवज्या का ,
हे नाथ ! मुझमें उद्भव हो,
मेरा अमृत प्राशन संस्कार तब ही सम्भव हो.
शरण --आधार
शरण देना या माँगना
किसी को बांधना
या किसी से बंधना है.
हमें अशरण और निराधार होना है.
अपना आधार आप होना है.
शरण आधार और स्वामी की परम्परा
यदि यूँ ही अनाहत रही ,
तो दासत्व की परम्परा का अंत कैसे होगा ?
वस्तु सब अपनी -अपनी हो जाएँ
तो कौन किसका स्वामी
और कौन किसका दास होता है ?
सर्वस्व यहॉं कौन किसका हुआ है,
या हो सकता है.
हम अपने ही सर्वस्व हो सकते हैं.
उसे कौन किसी से छीन सकता है.
हमें अपना आधार , अपनी शरण
अपना नाथ
अर्थात,
स्वयम नाथ होना है.
फ़िर कोई त्रिलोकी नाथ
उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता है.