भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अये मेरे प्रिये / कैलाश पण्डा
Kavita Kosh से
अये मेरे प्रिये
तुम्हारे प्रति जब
मेरा प्रेम उमड़ता है
तो मेरे शरीर की
समस्त ऊर्जा
ह्रदय तल में
समाहित हो जाती है
तुम मेरे समक्ष होती हो तो
मस्तिष्क शून्यवत/दीन- हीन सा याचक
मानो पा लेना चाहता हो थाह !
उद्वेग रहित/कल्पना विहीन
आंखे चुधियाई सी
मानो तुम में ही
सारा संसार बसा है
मेरे मुख से निःशब्द
कर्ण बिम्ब स्तब्ध/मेरा उपस्थ जड़वत
मेरी आंखों में बसी आत्मा
तुम्हारी आंखों में /परमात्मा को खोजती
शायद मिल जाना चाहती नदी
समुद्र के अथाह जल में
और मुक्त हो जाना चाहती
सूक्ष्म सत्ता से।