भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अयोध्या-3 / सुशीला पुरी
Kavita Kosh से
गूंगी अयोध्या
टूटते हैं मंदिर यहाँ
टूटती हैं मस्जिद यहाँ
टूट कर बिखर जाते हैं
अजान के स्वर
चूर-चूर हो जाती है
घंटियों की स्वरलहरियाँ
कोई नहीं बचाता यहाँ
सरगमों के स्वर
कोई नहीं पोछता
सरयू के आँसू
उसके लहरों की उदास कम्पन
अक्सर भटकती है सरयू
खोजते हुए
सीता की कल-कल हँसी ।