अयोध्या नहीं, हम जा रहे थे दफ्तर / विजयशंकर चतुर्वेदी
अयोध्या नहीं, हम जा रहे थे दफ़्तर
हमने नहीं ढहाई कोई मसजिद
मन्दिर भी नहीं तोड़ा हमने
हम तो कर रहे थे तैयार
बच्चों को स्कूल के लिए
स्त्रियाँ फींच रही थीं कपड़े
धो रहीं चावल
कुछ भर रहीं थीं स्टोव में हवा
चिड़ियाँ निकल पड़ी थीं दाने चुगने
खेतों की ओर जा रहे थे किसान
हमें नहीं चला पता
किधर से उठा शोर
किस दीवार से टकराई गोली
कहाँ से आ गिरा कबूतर
हमारी चौखट पर
हम बाँध रहे थे जूतों के फीते
सुन रहे थे भाजी बेचने वालों की चिल्लाहट
हमारे हाथों में फावड़े नहीं थैले थे लाने को सब्जियाँ
अयोध्या नहीं
हम जा रहे थे दफ़्तर
हम नहीं जानते थे खोदना किसी का घर
हमने नहीं ढहाई कोई मसजिद
नहीं तोड़ा कोई मन्दिर
जो टूटे वे थे हमारे ही मकान
सड़क थे
सन्नाआ भी थे हम
गलियों में दुबके चेहरे हमारे थे
हम हिन्दू थे
हमीं थे मुसलमान
दंगाई नहीं थे हम
न ही थे नेता
कि हो गिरफ़्तार
रहते सुरक्षित
हमारा धर्म नहीं था अमरबेल
जिस पर खेला जाए ख़ूनी खेल
उसकी जड़ें थीं ख़ूब गहरे धरती में
हम नहीं थे असुरक्षित खुले में
हमारे बच्चे निकल आते थे गलियों में खेलने
हममें से लौटेंगे नहीं अब कुछ लोग
उनकी परछाइयाँ भी नहीं बनेंगी
सूरज-चाँद के सामने उनने नहीं ढहाई कोई मसजिद
नहीं तोड़ा कोई मन्दिर।