भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अरज / जितेन्द्र सोनी
Kavita Kosh से
रूई सिरखा बादळां नैं
जका बरसै है अठै हमेस
देखूं हूं जद भाखपाटी-सी
भाखरां री गोद मांय
नचीता सूता
तद आपोआप
भटक जावै है म्हारो ध्यान।
थार में
जठै पथरायगी आंख्यां
बिरखा सारू
हाथ जोड़ कैवूं वांनैं
बरसो अठै हरख सूं
पण अेकर मिल तो जाओ
म्हारी थार री माटी सूं।
इणसूं पैलां कै
थार रो अकाळ गिट जावै वांनै
बरसो अेकर
फूटै नवी कूंपळां
सूखता ठूंठां मांय
वापर जावै ज्यान
बैसकै पड़्या डांगरां मांय
देखो,
अठै जद थे बरसो बार-बार
म्हे धाप जावां
घणी बार
इण वास्तै अेकर बरस'र देखो तो
थार री तपती जमीं माथै
बठै हुवैली आपरी घणी मनवार
हरख रै आंसुवां सूं
जका थारै पाणी सूं रळमिळ
हो जावैला अेकाकार
अेकर बठै बरसो तो सरी।