अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार-4 / अशोक कुमार पाण्डेय
इतनी तेज़ रोशनी उस कमरे में
कि ज़रा सा कम होते ही
चिंता का बवण्डर घिर आता चारों ओर
दीवारें इतनी लंबी और सफ़ेद
कि चित्र के न होने पर
लगतीं फैली हुई कफ़न सी आक्षितिज
इतनी गति पैरों में
कि ज़रा सा शिथिल हो जाएँ
तो लगता धरती ने बंद कर दिया घूमना
विराम वहाँ मृत्यु थी
धीरज अभिशाप
संतोष मौत से भी अधिक भयावह
भागते-भागते जब बदरंग हो जाते
तो तत्क्षण सज़ा दिए जाते उन पर नए चेहरे
इतिहास से निकल आ ही जाती अगर कोई धीमी-सी धुन
तो तत्काल कर दी जाती घोषणा उसकी मृत्यु की
इतिहास वहाँ एक वर्जित शब्द था
भविष्य बस वर्तमान का विस्तार
और वर्तमान प्रकाश की गति से भागता अंधकार...
यह गति की मज़बूरी थी
कि उन्हें अक्सर आना पड़ता था बाहर
उनके चेहरों पर होता गहरा विषाद
कि चौबीस मामूली घण्टों के लिए
क्यूँ लेती है धरती इतना लंबा समय?
साल के उन महीनों के लिये बेहद चिंतित थे वे
जब देर से उठता सूरज और जल्दी ही सो जाता...
उनकी चिंता में शामिल थे जंगल
कि जिनके लिए काफ़ी बालकनी के गमले
क्यूँ घेर रखी है उन्होंने इतनी ज़मीन ?
उन्हें सबसे ज़्यादा शिक़ायत मोर से थी
कि कैसे गिरा सकता है कोई इतने क़ीमती पंख यूँ ही
ऐसा भी क्या नाचना कि जिसके लिये ज़रूरी हो बरसात
शक़ तो यह भी था
कि हो न हो मिलीभगत इनकी बादलों से…
उन्हें दया आती वनदेवी पर
और क्रोध इन सबके लिये ज़िम्मेदार मणि पर
वही जड़ इस सारी फसाद की
और वे सारे सीपी, शैवाल, पत्थर और पहाड़
रोक कर बैठे न जाने किन अशुभ स्मृतियों को
वे धुनें बहती रहती जो प्रपात सी निरन्तर
और वे गीत जिनमे शब्दों से ज़्यादा खामोशियां…
उन्हें बेहद अफ़सोस
विगत के उच्छिष्टों से
असुविधाजनक शक्लोसूरत वाले उन तमाम लोगों के लिए
मनुष्य तो हो ही नहीं सकते थे वे उभयचर
थोड़ी दया, थोड़ी घृणा और थोड़े संताप के साथ
आदिवासी कहते उन्हें …
उनके हँसने के लिये नहीं कोई बिंब
रोने के लिये शब्द एक पथरीला – अरण्यरोदन
इतना आसान नहीं था पहुँचना उन तक
सूरज की नीम नंगी रोशनी में
हज़ारों प्रकाशवर्ष की दूरियाँ तय कर
गुज़रकर इतने पथरीले रास्तों से
लांघकर अनगिनत नदियां,जंगल,पहाड़
और समय के समंदर सात...
हनुमान की तरह हर बार हमारे ही कांधे थे
जब-जब द्रोणगिरियों से ढ़ूँढ़ने निकले वे अपनी संजीवनी...