अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार-5 / अशोक कुमार पाण्डेय
अब ऐसा भी नहीं
कि बस स्वप्न ही देखते रहे हम
रात के किसी अनन्त विस्तार-सा नहीं हमारा अतीत
उजालों के कई सुनहरे पड़ाव इस लम्बी यात्रा में
वर्जित प्रदेशों में बिखरे पदचिन्ह तमाम
हार और जीत के बीच अनगिनत शामें धूसर
निराशा के अखण्ड रेगिस्तानों में कविताओं के नखलिस्तान तमाम
तमाम सबक और हज़ार किस्से संघर्ष के
और यह भी नहीं कि बस अरण्यरोदन तक सीमित उनका प्रतिकार
उस अलिखित इतिहास में बहुत कुछ
मोर, मणि और वनदेवी के अतिरिक्त
सिर्फ़ ईंधन के लिये नहीं उठीं उनकी कुल्हाड़ियाँ
हाँ... नहीं निकले जंगलों से बाहर छीनने किसी का राज्य
किसी पर्वत की कोई मणि नहीं सजाई अपने माथे पर
शामिल नहीं हुए लोभ की किसी होड़ में
किसी पुरस्कार की लालसा में नहीं गाये गीत
इसीलिये नहीं शायद सतरंगा उनका इतिहास...
हर पुस्तक से बहिष्कृत उनके नायक
राजपथों पर कहीं नहीं उनकी मूर्ति
साबरमती के संत की चमत्कार कथाओं की
पाद टिप्पणियों में भी नहीं कोई बिरसा मुण्डा
किसी प्रातः स्मरण में ज़िक्र नहीं टट्या भील का
जन्म शताब्दियों की सूची में नहीं शामिल कोई सिधू-कान्हू
बस विकास के हर नये मंदिर की आहुति में घायल
उनकी शिराओं में क़ैद हैं वो स्मृतियाँ
उन गीतों के बीच जो ख़ामोशियाँ हैं
उनमें पैबस्त हैं इतिहास के वे रौशन किस्से
उनके हिस्से की विजय का अत्यल्प उल्लास
और पराजय के अनन्त बियाबान…
इतिहास है कि छोड़ता ही नहीं उनका पीछा
बैताल की तरह फिर-फिर आ बैठता उन चोटिल पीठों पर
सदियों से भोग रहे एक असमाप्त विस्थापन ऐसे ही उदास क़दमों से
थकन जैसे रक्त की तरह बह रही शिराओं में
क्रोध जैसे स्वप्न की तरह होता जा रहा आँखों से दूर
पर अकेले ही नहीं लौटते ये सब
कोई बिरसा भी लौट आता इनके साथ हर बार
और यहीं से शुरु होता उनकी असुविधाओं का सिलसिला
यहीं से बदलने लगती उनकी कुल्हाड़ियों की भाषा
यहीं से बदलने लगती उनके नृत्य की ताल
गीत यहीं से बनने लगते हुंकार
और नैराश्य के गहन अंधकार से निकल
उन हुंकारों में मिलाता अपना अविनाशी स्वर
यहीं से निकल पड़ता एक महायात्रा पर हर बार
हमारी मूर्छित चेतना का कसमसाता पाँव
यहीं से सौजन्यतायें क्रूरता में बदल जातीं
और अनजान गाँवों के नाम बन जाते इतिहास के प्रतिआख्यान!