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अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार-6 / अशोक कुमार पाण्डेय

यह पहला दशक है इक्कीसवीं सदी का
एक सलोने राजकुमार की स्वप्नसदी का पहला दशक
इतिहासग्रस्त धर्मध्वजाधारियों की स्वप्नसदी का पहला दशक
पहला दशक एक धुरी पर घूमते भूमण्डलीय गाँव का
सबके पास हैं अपने-अपने हिस्से के स्वप्न
स्वप्नों के प्राणांतक बोझ से कराहती सदी का पहला दशक

हर तरफ़ एक परिचित सा शोर
‘पहले जैसी नहीं रही दुनिया’
हर तरफ़ फैली हुई विभाजक रेखाएँ
‘हमारे साथ या हमारे ख़िलाफ़’
युद्ध का उन्माद और बहाने हज़ार
इराक,इरान,लोकतंत्र या कि दंतेवाड़ा

हर तरफ़ एक परिचित-सा शोर
मारे जाएँगे वे जिनके हाथों में हथियार
मारे जाएँगे अब तक बची जिनकी क़लमों में धार
मारे जाएँगे इस शांतिकाल में उठेगी जिनकी आवाज़
मारे जाएँगे वे सब जो इन सामूहिक स्वप्नों के ख़िलाफ़

और इस शोर के बीच उस जंगल में
नुचे पंखों वाला उदास मोर बरसात में जा छिपता किसी ठूँठ की आड़ में
फौज़ी छावनी में नाचती वनदेवी निर्वस्त्र
खेत रौंदे हुए हत्यारे बूटों से
पेड़ों पर नहीं फुनगी एक
नदियों में बहता रक्त लाल-लाल
दोनों किनारों पर सड़ रही लाशें तमाम
चारों तरफ़ हड्डियों के... खालों के सौदागरों का हुजूम
किसी तलहटी की ओट में डरा-सहमा चाँद
और एक अँधकार विकराल चारों ओर
रह-रह कर गूँजतीं गोलियों की आवाज़
और कर्णभेदी चीत्कार

मणि उस जगमगाते कमरे के बीचोबीच सजी विशाल गोलमेज़ पर
चिल्ल पों, खींच तान ,शोर... ख़ूब शोर... हर ओर
देखता चुपचाप दीवार पर टंगा मोर
पौधा बालकनी का हिलता प्रतिकार में...