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अरण्य काण्ड / भाग 4 / रामचंद्रिका / केशवदास

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राम विलाप

सवैया

निज देखौं नहीं शुभ गीतहि सीतहि कारण कौन कहौ अबहीं।
अति मोहित कै बन माँझ गई सुर मारग मैं मृग मार्यो जहीं।।
कटु बात कछू तुमसौं कहि आई किधौं तेहि त्रास डेराइ रहीं।
अब हैं यह पर्णकुटी किधौं और किधौं वह लक्ष्मण होइ नहीं।।64।।

राम जटायु संवाद

दोधक छंद

धीरज सौं अपनो मन रोक्यो।
गीध जटायु पîो अवलोक्यो।
छत्र ध्वजा रथ देखि कै बझेउ।
गीध कहौ रण कौन सो जूझेउ।।65।।
जटायु- रावण लै गयो राघव सीता।
हा रघुनाथ रटै शुभ गीता।
मैं बिन छत्र ध्वज रथ कीन्हौं।
ह्वै गयो हौं बल-पक्ष-विहीनौ।।66।।
राम- साधु जटायु सदा बड़भागी।
तो मन मो बपु सों अनुरागी।
छूट्यो शरीर सुन यह बानी।
रामहिं मैं तब ज्योति समानी।।67।।

तोटक छंद

दिशि दक्षिण को करि दाह चले।
सरिता गिरि देखत वृक्ष भले।
वन अंध कबंध विलोकत हीं।
दोउ सोदर खैंच लिये तबहीं।।68।।

कबंध वध

जब खैबेहि को जिय बुद्धि गुनी।
दुहुँ बाणनि लै दोउ बाहिं हनी।
वहँ छाड़ि कै देह चल्यो जबहीं।
यह व्योम में बात कह्यो तबहीं।।69।।
पीछे मघवा मोहिं शाप दयौ।
गंधर्व ते राक्षस देह भयी।
फिरि कै मधवा सह युद्ध भयो।
उन क्रोध कै शीश में बज्र हयो।।70।।
(दोहा) गयो शीश गड़ि पेट मैं, परîो धरणि पर आय।
कछु करुणा जिय मों भई, दीन्हीं बाहु बढ़ाय।।71।।
बाहु दयी द्वैं कोस की, ‘आवै तेहि गहि खाउ।
राम रूप सीता-हरण, उधरहु गहन उपाउ’।।72।।
सुरसरि तै आगे चले, मिलिहैं कपि सुग्रीव।
देहैं सीता की खबरि, बाढ़े सुख अति जीव।।73।।

विरह जन्य प्रलाप

तोटक छंद

सरिता एक केशव सोभ रई।
अवलोक तहाँ चकवा चकई।।
उर में सिय प्रीति समाइ रही।
तिन सो रघुनायक बात कही।।74।।
अवलोकत हौं जबहीं तबहीं।
दुख होत तुम्हैं तबहीं तबहीं।।
वह बैर न चित्त कछु धरिए।
सिय देहु बताइ कृपा करिए।।75।।
शशि के अवलोकन दूर किये।
जिनके मुख की छबि देखि जिये।।
कृत (उपकार) चित्त चकोर कछूक धरौ।
सिव देहु बताय सहाय करौ।।76।।

सवैया

कहि केशव याचक के अरि चंपक शोक अशोक लिये हरि कै।
लखि केतक केतकि जाति गुलाब ते तीक्षण जानि तजे डरिकै।।
सुनि साधु तुम्हैं इस बूझन आये रहे मन मौन कहा धरिकै।
सिय को कछु सोधु कहौ करुणामय सो करुणा (करना नाम का पेड़) करुणा करिकै।।77।।

नारायण छंद

हिमांशु सूर सो लगै सो बात वज्र सा बहै।
दिशा लगे कृशानु ज्यों विलेप अंग को दहै।
विशेषि कालराति सो कराज राति मानिए।
वियोग सीय कोन काल लोकहार जानिए।।78।।

राम शबरी मिलन

पद्धटिका छंद

यहि भाँति बिलोके सकल ठौर।
गये शबरी पै दोउ देव मौर।।
लियो पादोदक तेहि पद पखारि।
पुनि अर्ध्यादिक दीन्हें सुधारि।।79।।
हर देत मंत्र जिनको विशाल।
शुभ कासी मैं पुनि मरन काल।
ते आये मेरे धाम आज।
सब सफल करन जप तप समाज।।80।।
फल भोजन को तेहि धरे आनि।
भये यज्ञपुरुष अति प्रीति मानि।।
तिन रामचंद्र लक्ष्मण स्वरूप।
तब धरे चित्त जग जोति रूप।।81।।
(दोहा) सबरी पावक पंथ तब, हरखि गई हरिलोक।
वनन विलोकित हरि गये, पंपा तीर सशोक।।82।।

पंपासर वर्णन

अति सुंदर सीतल सोभ बसै।
जहँ रूप अनेकनि लोभ लसै।।
बहुँ पंकज पंछि विराजत हैं।
रघुनाथ विलोकत राजत हैं।।83।।
सिगरी ऋतु शोभित सुभ्र जहीं।
लहै ग्रीषम पै न प्रवेश सही।।
नव नीरज नीर तहाँ सरसैं।
सिय के सुभ लोचन से दरसै।।84।।

विजय छंद

सुंदर सेत सरोरुह मैं करहाटक (कमल पुष्प के बीच की छतरी) हाटक (सोना) की द्युति को है?
तापर भौंर भले मन रोचन लोक-विलोचन को रुचि रोहैं।
देखि दई उपमा जलदेविन दीगधदेवन के मन मोहै।
केशव केशवराय मनो कमलासन (ब्रह्मा) के सिर ऊपर सोहै।।85।।

लक्ष्मण-
मिलि चक्रिन (सर्प) चंदन बात बहै अति मोहत न्यायन ही मति को।
मृगमित्र (चंद्रमा) विलोकत चित्त 5जरै लिये चंद निशाचर सद्धति को।
प्रतिकूल सुकादिक होहिं सबै जिय जानैं लहीं इनकी गति को।
दुख देत तड़ाग तुम्हैं न बनै कमलाकर ह्वै कमलापति को।।86।।