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अराजक जनपद का गीत / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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जय निनाद से आतंकित कर दिगदिगन्त को सिन्धु-क्षितिज तक,
निखिल भुवन की सृजन-चेतना के प्रतिनिधि बन,
सप्तद्वीपविजयी अधिपतियो,
अपने सर्वजयी पौरुष से-
कर न सकोगे आधिपत्य तुम लोक-हृदय के सिंहासन पर!

करो कृतार्थ त्रस्त्र मानव को महामहिम गरिमा से,
कंुकुम का जयतिलक लगा कर!
सहज विनय से अवनत होकर!
गहन तिमिर में प्रेमज्योति के किरण सुमन बन!

बलप्रयोग से अथवा प्रभुतामय शासन के अस्त्र-शस्त्र से
वश में कभी नहीं हो सकते,
नहीं कभी होंगे भविष्य में मदोन्मत्त ओ सत्ताधारी,
जन्मसिद्ध मानस स्वतन्त्रता के अधिकारी-
अंग-बंग, केरल, विदर्भ, उत्तर कुरु जनपद के नर-नारी!
सिन्धु, शतद्रु, अलकनन्दा की अन्तर्वेदी के अधिवासी!
उदयाचल से अस्ताचल तक ससागरा पृथिवी के वासी!

हे जननायक, आज युगान्तर की घड़ियों में भूल न जाना,
सत्ता-केन्द्रों, संस्थाओं के अधिपति बन कर-
मानव क्या है? विश्वभुवन मानवता का आलम्बन क्या है?
सृजन न करना तानाशाही शासन के अनुरूप व्यक्ति का!
क्योंकि व्यक्ति की स्वतन्त्रता का मूल्य रहेगा नहीं अन्ध सत्ता के सन्मुख!

पृथिवीपुत्रो, वैधानिक तन्त्रों, मतवादों को अपना कर,
फेर न देना प्राणभूत मानवता के प्रिय अरमानों पर पानी!
मत दुहराओ वेदव्यास के मर्यादित उस नीति-सूत्र को,
आदर्शों के आदि विधाता वाल्मीकि के उस प्रवचन को!
जिसकी पृष्ठभूमि है केन्द्रित,
जिसका दृष्टिकोण है कुंठित,
जिसमें है शासन की कर्कश शब्द-व्यंजना, ध्वनि अन्तर्हित!
कहो न मुझसे वाल्मीकि के सुर में अपना कंठ मिला कर-
‘जनमंगल का कारण है शासन का बन्धन,
मरा हुआ वह राष्ट्र न क्या है?
जहाँ न हैं प्रतिबन्ध, नियम, संयमित नियन्त्रण!
जैसे जल के बिना सरित-सर, ताल-सरोवर,
बिना फूल-फल-पौधे के होते वन-उपवन!
वैसे ही होता है राष्ट्र बिना शासन का!
नहीं कुशल से रह पाएँगे पूर्ण अराजक जनसमाज में,
जहाँ शाम हो वहीं बसेरा करनेवाले-
अमरपुरी के सभ्य नागरिक परउपदेशकुशल संन्यासी!

नहीं अराजक जनपद मंे तरुणी कुमारियाँ,
ताम्र और गैरिक सन्ध्या-वेला में,
जा पाएँगी उद्यानों में क्रीड़ा करने-
हस्ति-दन्त के वलय पहन फूलों के कंकण!

हो जाता हे योग-क्षेम का नाश अराजक जनसमाज में,
और नहीं होता मानव का कुछ भी अपना!
नहीं अराजक जनपद में बिजली चमका कर,
गरज-गरज कर काले बादल सींचेंगे इस वसुन्धरा को!
नहीं अराजक अमानिशा में मूठ बीज की
बोई जाएगी समतल उर्वर खेतों में!

नहीं रहेगी नारी नर की कामवन्दिनी दासी बन कर,
नहीं रहेंगे पुत्र पिता के बन कर अनुचर!
सत्य अराजक जनसमाज में कहाँ रहेगा?
धन न रहेगा, धर्म न जग में कहीं रहेगा!
साठ वर्ष के मतवाले गज घण्टे लटकाए गरदन में-

राजमार्ग पर नहीं झूमते हुए चलेंगे!
नहीं चलेंगे पण्य वस्तु ले वणिक मार्ग में!
सभा ने कर पाएँगे वर्ष सन्धि में जनगण,
और न कहीं दिखाई देंगे पार्क, वाटिका, हर्म्य मनोरम!
शतसहस्र शाखाओंवाले कल्पविटप मर्यादाओं के
अनुशासन के बिना उखड़ जाएँगे मूलसहित भूतल से।
हो जाएगा सब कुछ वैसे ही निगूढ़ तम में अन्तर्हित,
अन्धकार से आवृत जेसे हो जाता है दिवस प्रभासित,
होता अगर न शासन का बन्धन समाज में!

नहीं अराजक भूप्रदेश में स्वर्गदूत-से शोभित होंगे!
कुंकुम, चन्दन, गन्धराग से ऋतु वसन्त में देह सजा कर,
राजपुत्र-जनगणअधिनायक अभ्रंकष प्रासाद-शिखर पर!
भय-संशय से क्षुब्ध अराजक पुर-प्रान्तर में-
उत्कंठित होकर भूमानव!
चल न सकेंगे दुर्निवार गति से तुरंग या रथ पर चढ़कर!
सत्यान्वेषी आप्तकाम पर आत्मकाम बन-
कर न सकेंगे अंतर को संयत कर-
धूपदीप से, गन्ध सुमन से महामहिम देवों का अर्चन!
बैठ न पाएँगे सत्रों में समित्पाणि होकर ब्राह्मणगण!
घर के बन्द कपाट खोल कर सो न सकेंगे जनसाधारण!
निबिड़ अराजक जमानिशा के अन्धकार में रक्षित रह कर!’

किन्तु, कहाँ शासन के स्वर्णिम भू-प्रांगण में,
योग-क्षेम की फूल खिलानेवाली धारा-
बहती है उद्दाम वेग से विष्णुपदी-सी?
और कहाँ मिलता मानव को जीवन का उन्मुक्त किनारा?
कहाँ कुशल से रह पाते हैं शासन की नव अरुण प्रभा में,
शरणदायिनी मानवता के बलिपन्थी सेवक-सेनानी?
सृजनशक्तिशाली शासन की मरीचिका में-
कहो कहाँ है सत्य? धम्र का मूल कहाँ है?
जाओ देखो सर्वशक्तिसम्पन्न सोवियत के युग-उन्नायक शासन में,
कैसे निर्मम अनुशासन की कड़ियोंवाली जंजीरों से

जड़ बन कर चेतन मानव जकड़ा बैठा है?
कैसे झुका हुआ है उसका गर्वोन्नत अभिमानी मस्तक,
मदोन्मत्त क्षमता की स्वर्णमूर्त्ति के सन्मुख?
जाओ देखो जननायक स्तालिन के प्रभुतामय शासन में।
कैसे रक्तरहित फाँसी का यन्त्र सृजन कर,
कैसे निर्दयता से निरपराध मानव का रक्त हरण कर-
शान्दिकेतु फहराने वाले मुक्तिविधाता मार्क्सिस्टों ने
रण की खुली चुनौती दी है नैनिकता को?
कहो कहाँ शासन की काली अर्द्ध रात्रि के सन्नाटे में
नागवृक्ष के किसलय-जैसे अधरोंवाली-
रखती मन्दाक्रान्ता-सी कृष्णाभिसारिका मन्द-मन्द अपने चरणों को?
और न पगध्वनि होने देती!
नीलकण्ठ के नील पंख-सा नीलवरण परिधान पहन कर-
छिपा नील अंचल से लेती अपनी चमकीले कंकण को!
(यह क्या करती हो, बोलो मत!
हे कृष्णाभिसारिके, शासन की इस काली अमा निशा में!
क्योंकि तुम्हारे शरद चन्द्रमा के समान दाँतों की किरणें-
किए डालतीं नष्ट भयानक अन्धकार को।)

रामराज्य के अरुणोदय की स्वर्णविभा में-
कहो कहाँ पैदा करती धरती मणिकंचन!
खेतों के अंचल में कहाँ दिखाई देतीं-
धान और गेंहूँ की सुरभित स्वर्ण बालियाँ?
क्यों पीले हो गए सूख कर अनावृष्टि से रामराज्य में!
रंगज्वाल से भरे गन्धमय शस्य-फूल-फल?
क्यों पराग भूजीवन का सारा-का-सारा-
झड़-झड़ कर रहा नष्ट हो रहा?

जानें क्यों फट गई प्यास से है जलती धरती की छाती?
क्यांे पड़ती जा रहीं दरारें उसमंे गहरी?
झुलसा देनेवाली हवा निकलती जिनसे!
तप्त स्पर्श से जिसके होता पीड़ित जनगण का अन्तर्मन!
भू की फटी हुई छाती की जिन सेंधों से-
कोटि-अलक्षित हस्त गगन-प्रांगण में उठकर
उत्कंठित स्वर में कहते हैं-
‘दो पानी, पानी दो, पानी, प्यास बुझाओ!’

घृणा हुई है व्यक्त प्रेम की लीक मिटा कर,
अंशो-भिन्नों में जीवन को खण्ड-खण्ड कर!
दुरभिशाप से अभिशापित इन बुरे दिनों में,
पहले से ही बने निकम्मे बैठे पूँजीपतियों ने खरीद कर-
कोटि-कोटि नंगे-भूखों के मुँह के दाने;
गाँव-गाँ में, हाट-बाट में, नगर-नगर में
तरुण-वृद्ध, नवजात सरल शिशु, दुर्बल क्षीणकाय नारी-नर,
तरस रहे हैं मुट्ठी-भर दाने के लिए उपेक्षित होकर!
बेच रही हैं माताएँ दृग के तारे शिशुवृन्द सलोने!
बेच रहा है पति मुग्धा तरुणी पत्नी को!

कोई जीवित है भू-लुंठित तरु-पत्रों पर,
कोई रहता अँधियारे वन के विवरों में घास चवा कर!
लक्ष-लक्ष मानव दुख से पिस चले जा रहे-
लक्ष्यहीन-से मृत्युतिमिर की ओर निरन्तर!
हँसती है विदू्रप प्रतिनी अहंकार की शासन की असूझ तमसा में!
जन्म-जन्म की क्षुधा और तृष्णा का पंकिल रक्त लगा जिसके होंठों पर!
आतंकित है गगन और कम्प धरा में,
दिन में ही लग गए बोलने दिवाभीत रवि के प्रकाश में!
झोंपड़ियों-सड़कों के इधर-उधर, गन्दी गलियों में
सड़े-गले विकलांग घिनौने शव के टुकड़े-
भूख-प्यास के घुल-घुल कर मरनेवालों के।
क्रन्दन करता वाणी से अपमान उगलता हुआ सत्य है!
स्वार्थ, वर्गसंघर्ष, विघातक छùनीति के पदाघात से!
न्याय मौन है खड़ा मृत्यु के सिंहपौर पर!
तूर्यनाद कर गूँज रहा सर्वत्र दम्भ का रुद्र कंठ-स्वर!

भुजा उठाकर अब मत कहना मेरुअचल निश्चय के स्वर में-
‘शासक का उन्नत आसन है शिखर राष्ट्र का!
शासन ही है धर्मनीति इस मानवकेन्द्रित कर्मभूमि में!
ओ युग-मानव, काले शासन-तक्षक के जहरीले मुख में-
नहीं डालना अपनी कोमल अँगुलियों को मन्त्र-दर्प से!
यह कोई वैसा साधारण सर्प नहीं है!
देखो, इसके डसे हुए तुम-से लाखों ही-
मुरदे बने तुम्हारे सन्मुख पड़े हुए हैं!
बने हुए क्या इसीलिए शासन क विषमय दन्त नुकीले?
जो कि विमूर्च्छित जन-जीवन के भग्न अस्थि-पंजर को नोचंे!
अपमानित करने मानव की विनम्रता को अनुशासन के लौहदण्ड से,
केन्द्रच्युत करने महिमान्वित नैतिकता को बर्बरता की घन-चोटों से,
लज्जित करने मनुजोचित संयमित सरलता को अपने भौतिक वैभव से,
केशरहित करने वसुधा को ध्वंसक धूममयी गैसों से,
शासन के प्रतिनिध बन आए स्वेच्छाचारी अधिनायक जन!
डरावने घड़ियाली जबड़े और शेर के पंजे लेकर!
बँध कर काली लौह-शृंखला में शासन की-
जूझ रहा है द्वार -देहली पर विनाश-निर्माण के खड़ा-
नव प्रकाश के लिए महत्तवाकांक्षी भारत।
यद्यपि हैं हो गए भग्न सब यन्त्र जर्जरीभूत-
दासतामय शासन के, और काल ने जिन्हें काट खाया है!
किन्तु, भ्रान्तिवश अभिनव भारत इन्हीं जर्जरित सम्मोहन यन्त्रों से
कीर्तित रहने के स्वप्नों में आन्दोलित है!

अब तो अल्प, क्षुद्र जनगण को घूर्ण प्रभंजन-से बढ़ने दो!
अब तो बिना रुकावट के ही उन्हें बवन्डर-सा बढ़ने दो!
रोक न सकते जिसे जटिल जालोंवोले वन,
पुंजीभूत तिमिर की काली लहरें बन कर!
रोक न सकते जिसे शृंखलित दुर्धर भूधर,
नील गगन मण्डल के गहन आवरण!

अब तो मृत, मूर्छित मानव को सिन्धु-तरंगों-सा बढ़ने दो!
अब तो बिना नियन्त्रण के ही उन्हें ग्लेशियर-सा बढ़ने दो!
रुद्ध नहीं होती जिसकी गति गहन द्रोणियों, चट्टानों से!
शैलपाटियों, नग्न घाटियों, भीमकाय हिम के पिण्डों से!

अब तो जनगण को करने दो मुक्त कंठ से-
स्वतन्त्रता की विजयघोषणा!
भय के दारुण पदाघात से कसक-कसक कर भीतर-भीतर,
अब तो वहन न करने दो नर-कंकाल को-
भार लांछना, तिरस्कार का।
बर्बरता के पैने नखवाले पंजों से पीड़ित होकर,
अब मत उनको मूक-मौन या चुप रहने दो।
भीषण उत्पीड़न, निष्ठुर अन्याय, दमन-ताण्डव के सम्मुख,
उन्हें धीरता, निश्चलता से एक साथ मिलकर लड़ने दो।
अब न उन्हें दो शरण ढूँढने वन-प्रान्तर में, गिरि-गह्वर मंे!
क्षुब्ध, उपेक्षित मानवता के लिए छù-छल से, कौशल से!
आत्म-ऐक्य के सेतु प्रेम के उपादन से!

जड़ से दो उखाड़ उन पीले ग्रन्थि-कन्द उद्भिज-गुल्मों को
बिना प्रयोजन के ही जड़ में उगे जो चूस रहे हैं;
गन्धप्रसूनों को भू से मिलनेवाली उर्वरा शक्ति को।
अब तो कर दो कलम बधिक की भाँति शीघ्र ही-
नील मेघ से घिरे नील निश्चिह्न गगन के गहर विवर में,
वृहदाकार उत्तंग शीघ्र बढ़नेवाले न्यग्रोधों के सिर,
जो कि तुम्हारे लोकतन्त्र शासन में उठे दिखाई देते!
अब तो दो आलम्बन गाढ़ालिंगन में भर,
झुकी हुई मंजरित डालियों को शोभतम!

कर दो अब सपाट दृढ़ हाथों से सरकारी अदालतों को,
फौलादी काराघर, हवालात, जल्लादी कठघेरों को!
हो केवल दण्ड ही, किन्तु हो नहीं सान्त्वना जिस विधान में!
मत मानो उस दमघोंटू शासन के बातूनी विधान को।
मुजरिम है वह पुलिस कि जो करती है नजरबन्द जेलों में,
बिना जुर्म के ही साजिश कर बदकिस्मत उन आवारों को,
विवश हुए हैं जो करने को लोकनीति का सीमोल्लंघन-
भूख और दुख के दुर्गम पथ के यात्री बन!
मुजरिम है वह जंगपरस्त फौज जिसने कर डाला बंजर,
शस्य-श्यामला वसुन्धरा को रण-प्रांगण का केन्द्र बना कर।
मुजरिम है वह सेनानी की कीर्ति-कौमुदी जिसने विस्तृत,
सर्वमेध कर रक्तस्नात लाशों पर अगणित।
मुजरिम है वह नीतिनिपुण जज जिसने झूठा निर्णायक बन,
दिया मृत्यु का दण्ड मुक्ति के अग्रदूत उन दीवानों को-
अन्धड़’ से जो निकल पड़े थे अंगारों के हार पहन कर,
इन्कलाब का मन्त्र फँूकने धूमकेतु बन प्रलयंकारी!

मुजरिम है वह हृदयहीन नेता जिसने अधिनायक बन कर,
अपने को ही अपना अन्तिम लक्ष्य मान कर,
हरण किया पृथिवीपुत्रों की स्वतन्त्रता को चंगेजी आतंक वृत्ति से।
मुजरिम है वह सड़ी-गली घुनलगी हुकुमत,
अन्न नहीं देती है जो भूखे को और कफन मुर्दे को।

क्राकाटोआ के घनघोर धड़ाकों से भी मर्मविदारक,
बिस्युबियस के दहनशील विस्फोटों से भी कंपोत्पादक,
माउण्टएटना की लपटों से भी विध्वंसक,
और माउण्टब्रोमो के प्रलयोद्गारों से भी महाभयंकर,
शान्तिघातिनी हिंसा पर अवलम्बित केन्द्रित जनसत्ता की-
ज्वालगिरिशृंखला वमन करती विनाश का उल्का-प्रस्तर।
शंकु-शिखर के उदरगर्त्त से धधका कर भीषण वैश्वानर!
गंगा और नर्मदा की निर्मल धारा को,
हेमकूट काकेशस की पर्वकारा को,
फ्रान्स, जर्मनी और चीन की फूलघाटियों के दुकूल तक,
हिन्दमहासागर के तट से अमरीका के सिन्धु-कूल तक,
आच्छादित कर अन्तरिक्ष को काली घटाटोप गैसों से।
अब तो सृजन करो उस अभिनव स्वर्णभूमि का,
जिसमें केन्द्रीभूत न होगा अर्थनीति का क्षेत्र अपरिमित!
जहाँ न होगी शक्तिशालिनी राजनीति की सत्ता केन्द्रित!
अब तो नव-नवीन स्पप्नों का भू पर ऐसा स्वर्ग बसाओ!
जहाँ व्यक्ति की स्वतन्त्रता का फूलों से होगा अभिनन्दन!

मानव के स्वाधीन विचारो का होगा जिसमें जयगर्जन!
अब तो करो 55 विकेन्द्रित केन्द्रित उद्योगों को,
लोकसंसदों, लार्ड सभाओं, राज्यतन्त्र परिषद-भवनों को,
सरकारों के संवधिान संघों को और प्रमुख केन्द्रों को!

अब तो फूलों के रंगों का ऐसा नूतन लोक बसाओ,
जहाँ न होगा क्षेममयी मानवता की प्रतिमा का भंजन;
जहाँ न होगा शासन की दुर्दम लिप्सा का ताण्डव नर्त्तन!
पग-पग पर होगा न जहाँ मर्दित वसुन्धरा का कुसुमानन,
जहाँ न निकलेंगे साँसों से प्रतिहिंसा के सर्प काढ़ फन!

अब तो सृजन करो उस नूतन जनसमाज का,
जहाँ अशान्ति, कलह, शोषण, वैषम्य, क्षोभ का नाम न होगा!
अन्तर्विग्रह, वैमनस्य रणलिप्सा का उन्माद न होगा!
गाँवों-नगरों के अंचल पर जहाँ न मानव,
पाशव बर्बरता के संकल्पों से प्रेरित होकर;
उष्ण गैसमय प्रलयंकारी अंगारों की वर्षा कर पाएगा!
जहाँ साम्य, बन्धुत्व, शान्ति, उत्फुल्ल प्रेम से,
वसुन्धरा प्रतिरूप स्वर्ग का बन जाएगी!

प्रकृतिसिद्ध सदसदनिर्णायक सहज बुद्धि में,
रह न सकेगा परम्परा पर निर्भर मानव!
जीवन-पथ के निर्धारण में,
जीवन-क्रम के प्रतिपादन में,
जहाँ न होगा मानव निज पुरखों के आश्रित!
सामाजिक जीवन-विकास के लिए सुनिश्चित,
शासन का मुहताज रहेगा जहाँ न मानव!

नव-नवीन, स्वाधीन विकेन्द्रित जनसमाज में,
अन्तरंग होंगे अनुशासन और नियन्त्रण!
बाह्य नियन्त्रण के अभाव में शिथिल न होगा,
जिस समाज के अन्तरंग संयम का बन्धन!
जहाँ न होगा डर के मारे शासन के बन्धन में बँधना!
और न डर होने पर होगा नीति-नियम का लंघन करना!

अनिर्बन्ध, स्वच्छन्द, अराजक, जनसमाज में,
परदेशी या अपनी सरकारों का होना-
बर्बरता से पूर्ण, घृण्य समझा जाएगा!
बड़े-बड़े महलों, भवनों को,
बड़े-बड़े नगरों, गाँवों को,
सफल हुआ है निर्मित करने ओर बसाने में जो मानव!
जिसके जलयानों ने सिन्धु पार कर दुस्तर,
संचित की निधि द्वीप-द्वीप की!
नतशिर हो जाते जिसके समक्ष हैं
गैंडे़, व्याघ्र, मृगेन्द, मतंगज!
कौन करेगा उस पर शासन यावचच्न्द्रदिवाकर?

(‘नया समाज’, मई, 1952)