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अरी ओरी, मेरी भोर की चिरैया गौरैया / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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अरी ओरी, मेरी भोर की चिरैया गौरैया,
कुछ कुछ रहते अँधेरे में फटते ही पौ
नींद का नशा जब रहता कुछ बाकी तब
खिड़की के काँच पर मारती तुम चोंच आकर,
देखना चाहती हो ‘कुछ खबर है क्या’।
फिर तो व्यर्थ झूठमूठ को
चाहे जैसे नाचकर
चाहे जैसे चुहचुहाती हो;
निर्भीक तुम्हारी पुच्छ
शासन कर सकल विध्न बाधा को करती तुच्छ।
तड़के ही दोयलिया देती जब सीटी है
कवियों से पाती बख्शीश कुछ मीठी है;
लगातार प्रहर प्रहर भर मात्र एक पंचम सुर साधकर
छिपे-छिपे कोयलिया करती उस्तादी है-
ढकेल सब पक्षियों को किनारे एक
कालिदास की पाई वाहवाही उसी ने नेक।
परवाह नहीं करती हो उसकी जरा भी तुम,
मानती नहीं हो तुम सरगम के उतार और चढ़ाव को।
कालिदास के घर में घुस
छन्दोभंग चुहचुहाना
मचातीं तुम किस कौतुक से !
नवरत्न सभा के कवि गाते जब अपना गान
तुम तब सभा स्तम्भों पर करती हो क्या सन्धान?
कवि प्रिया की तुम पड़ोसिन हो,
मुखरित प्रहर प्रहर तक तुम दोनों का रहता साथ।
वसन्त बयाना दिया
नहीं वह तुम्हारा नाटय,
जैसा जैसा तुम्हारा नाच
उसमें नहीं कुछ परिपाटय।
अरण्य की गायन सभा में तुम जातीं नहीं सलाम ठोंक,
उजाले के साथ ग्राम्य भाषा में समक्ष आलाप होता ;
न जाने क्या अर्थ उसका
नहीं है अभिधान में
शायद कुछ होगा अर्थ तुम्हारे स्पन्दित हृदय ज्ञाने में।
दायें बायें मोड़-मोड़ गरदन को
करतीं क्या मसखरी हो अकारण ही दिन-दिन भर,
ऐसी क्या जल्दी है?
मिट्टी तुम्हारा स्नेह
धूल ही में करतीं स्नान-
ऐसी ही उपेक्षित है तुम्हारी यह देह-सज्जा
मलिनता न लगती कहीं, देती न तुम्हें लज्जा।
बनाती हो नीड़ तुम राजा के घर छत के किसी कोने में
दुबका चोरी है ही नहीं तुम्हारे कहीं मन में।
अनिद्रा में मेरी जब कटती है दुख की रात
आशा मैं करता हूं, द्वार पर तुम्हारा पड़े चंचुघात।
अभीक और सुन्दर-चंचल
तुम्हारी सी वाणी सहज प्राण की
ला दो मुझे ला दो-
सब जीवों का प्रकाश दिन का
मुझे बुला लेता है,
ओरी मेरी भोर की चिरैया गौरैया।

कलकत्ता
प्रभात: 11 नवम्बर, 1940