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अरी गिलहरी रोयें वाली / मधुसूदन साहा
Kavita Kosh से
अरी गिलहरी रोयें वाली,
अपने में रहती मतवाली।
मुझसे क्यों इतना भय खाती,
आहट पा ऊपर चढ़ जाती।
बहुत बुलाता, किन्तु न आती,
कुतर-कुतर केवल फल खाती।
डरती हो तुम फल ले लूँगा,
अरी नहीं, टॉफी मैं दूँगा।
अच्छा लगता मुझे हमेशा,
रेशम-से रोयें का रेशा।
इसीलिए मैं रोज बुलाता,
आने पर जी भर सहलाता।
कभी नहीं तुम फिर भी आती,
मुझे देख ऊपर चढ़ जाती।
आओ तुमसे मैं खेलूँगा,
अपने बाँहों में ले लूँगा।
हम दोनों का संग अनूठा,
प्यार बिना सारा जग झूठा।