भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अरी सखि! मेरे तन / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अरी सखि! मेरे तन, मन, प्रान-
धन, जन, कुल, गृह-सब ही वे हैं, सील-मान-‌अभिमान॥
आँसू सलिल छाँडि नहिं कछु धन है राधा के पास।
जा कें विनिमय मिले प्रेम-धन नीलकांत-मनि खास॥
जानि लेहु सजनी! निस्चै यह, परम सार कौ सार।
स्याम-प्रेम कौ मोल अमोलक सुचि अँसुवन की धार॥