अरे, ओ बाँके सवार / राजेन्द्र शर्मा

( कमला प्रसाद जी के जन्मदिन पर एक स्मृति )

बस बाल हैं सफ़ेद थोड़े से
एक लट अभी भी माथे पर लहराती
दर्ज करती कि काले भी हुआ करते थे कभी
थोड़े से बेतरतीब कपड़े
लाज़िम थे लगातार सफ़र के दौरान
चेहरे पर वही पिघलता सूरज
जैसे इस तस्वीर में भी

हर शाम छुपा आते
पवन वेग से उड़ने वाला अपना नीला घोड़ा
आवाज़ देते खड़े ऐन दिल की चौखट पर
कि हम आ सकें बेफिक्र
तुम्हारी उँगलियाँ चुनने लगतीं हमारे ज़ख़्मों के फूल
और पिघला हुआ सूरज
हमारी नसों में दाख़िल होता जाता चुपचाप

महसूस भी नहीं होते
तुम्हारे सत्तर से ऊपर ऊबड़-खाबड़ बरस
हमारे दिल में हमारे घर में
हमारे उत्सव में हमारी उड़ान में
रात बीती यूँ चुटकियों में
और यह सुबह हुई जाती है

तुमने कस ली है जीन काठी
लो रक़ाब में डाले पैर
और अपने घोड़े पर सवार हस्बमामूल

लेकिन इस बार कहीं दूर चले जाने को

आवजो मीता
आवजो

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