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अरे, हम त यात्री हईं / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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अरे, हम न यात्री हईं
हमरा के रोक के केहू राख ना सके।
दुःख-सुख के बभेंधन सब झूठ ह
ई घर भला बाँधी का हमरा के?
वासना के बोझा खींचे खूब नीचे हमरा के,
बंधन सब टूट-टट अपने छितर जई।
अरे हम त यात्री हईं
राह चलते गीत गाइ ले जी भर के।
हमरा देह-दुर्ग के द्वर सब खुल जई,
वासना के बंधन सब टूट जाई,
भला-बुर सबके करत पर हम,
चलत रहब, चलत रहब,
लोक-लोकभेंतर लोक-लोक मेभें।
अरे, हम त यात्री हईं
बोझ माथ के सब गिर जाई
बुला रहल बा गगन दूर से
केकर वंशी साँझ-सबेरे
अइसन सुर से बाज रहल बा?
भाषाहीन अजानल गीतन के गा गा के
बरबस अपना ओर प्रान के टान रहल बा।
अरे, हम त यात्री हईं,
ना जानीं जे कतना भोर के चलल बानीं,
ओह घड़ी कतहूँ केनहूँ
कवनो पक्षी गावत ना रहे।
ना जानीं जे कतना रात बाकी रहे?
खाली एगो अपलक आँख
अन्हार में जाग रहल रहे!
ना केहू आपन रही, ना केहू पराया।
रात का एकांत में
पति से पतिव्रता के भेंट होई।
हे मृत्यु, हे मरन
आवऽ हमरा से बतियावऽ!!

अरे हम त यात्री हईं,
ना जानीं जे कवना साँझ के
कवना घरे पहुँच जाएब?
ना जानीं जे उहाँ कवन तारिका
दीया जरावेले?
ना जानीं जे उहाँ कवना फूल के गंध
हवा के चंचल बनावेले?
ना जानीं जे उहाँ कवन अनादिकाल
नेह भरल नैनन से हमार बाट जोहेला!!