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अरे अदिमी हूँ / कुमार वीरेन्द्र

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जब छोटा था

इहे समझता
बाबा नहीं रहे, आजी को नींद नहीं आ रही
मन बझाने को घूम रही, पाछे-पाछे जाता, देखता, 'हे, हट-हट, हे हट-हट' कर रही
और ज़ोर-ज़ोर से, बूझ नहीं पाता, जब इहाँ कवनो दूसर जीव-जनावर नाहीं, फिर
किसे भगा रही, जब बड़ा हुआ, दुआर पर देख-रेख को सोने लगा
बूझ गया, आजी रात-बिरात क्यों चली आती है
असल में बाबा की तरह उसकी
भी नींद टूट जाती

जब पड़ोस में केहू का बच्चा रोता

हालाँकि बाबा
की तरह, बच्चा देर तक रोए, पूछने को
पड़ोसी के दुआर नहीं जाती, पर इतनी ज़ोर से 'हे, हट-हट, हे हट-हट' करती
कि उसकी आवाज़ से, बच्चे के माँ-बाप महटियाए हों, शरम से आलस छोड़
उठ जाएँ, तनि पियाएँ, छेरियाया हो तो आँगन में घुमाएँ, तबीयत
ख़राब तो बहुरिया की न सही, सास की ही
आवाज़ आए, बन्द हो, 'हे, हट
हट, हट-हट'

तब कहीं गँवे जा सो जाए

कभी कहता
'ई सब का करती रहती हो, जो
हित हैं, नहीं बोलेंगे, जो बैरी, किसी दिन कुछ कह देंगे, न घटा सो घट
जाएगा...', कहती, 'अरे अदिमी हूँ, बेटा, पाथर थोड़े हूँ जो केहू का भी
बच्चा रोवे, करेज न फटे, तनि कोशिश करने में का
जाता है, चुप लगा जाए, आ जाती है
नींद, न आए तो बेटा
दिन-भर

मन हरियर नाहीं रहता !'