अरे ओ / हरीश भादानी
अरे ओ
तेरे बाहर का यह जंगल
भीतर ही
क्यों आ धंसता है
मुझ से पहले
तुझे ही जानना चाहिए
तू खुद उगाता है यह जंगल
या फिर कोई और
मैं तो इतना ही जानता हूँ
मैं ही मुचता हूँ
इसके भीतर आ धंसने से
मैंने नहीं सुना कभी तुझे
जंगल उगाते रहने की
जरूरत पर चीखते
सच मेरे दीदे भी नहीं फटे कभी
तेरे बाहर
जंगल उगाते रहने वालों से
देखा भी नहीं तुझे
कभी उनसे दो-दो हाथ करते
शायद इसीलिए जारी है
जंगल का होना
और हमेशा
भीतर धंसते जाना
मुझ पर आती
मुतवातिर मोचों के बावजूद
मारता रहा हूँ
अपने सवालों के पत्थर
तुझ पर तेरे धीरज पर
तेरे निराकार सोच पर भी
और तो और
जंगल उगाने वालों पर भी
तेरे चारों ओर
जंगल उगाये जाने की
जरूरत पर भी
जंगल उगाए जाने का
सबब जानना
तेरी जरूरत न हो भले
पर पहली जरूरत है
मेरा होना बने रहने की
इसलिए कि
मैं ही तो मुचता हूँ बार-बार
सूखे सपाट आंखों के कोटरों में
क्या देखूं
क्या समझूं
मेरे बोलते-बोलते
आ जाए शायद तुझे भी
उत्तर देने की झुरझुरी
और खोजने लगे
तू कोई सम्बोधन
ले, मैं ही दिये देता हूँ
‘ओ’ कह देना
‘तुम’ थाम लेना
उत्तर से पहले
‘ओ’ और ‘तुम’ का
फर्क तो हरूफ ही कर देंगे
जब भी मुचा हूँ न मैं
बोल ही गया हूँ अंट-शंट
मगर तू रहा है
फक़त घोंघा-बसंत
आज मैं फिर मुचा हूँ
वह भी बांये से
इसलिए अफराकर बिखरे हैं
मुंह से सवाल
तू नहीं मुचता है क्या कभी
किरकिराते नहीं है क्या
दांतों तले अक्षर
थूकने जैसे
होते ही नहीं क्या
सब निगल लेता है क्या
मुचा हुआ नहीं देखते मुझे
तब किस ओट में
रख लिया करते हो खुद को
लगता ही नहीं क्या तुझे
अपने भीतर
मेरा होना
कैसे.....कैसे हो सकता है
कोई भी इतना नितान्त?
जब कि मैं
हर बार छिल-मुच जाने पर
उठा लिया करता हूँ
तेरे ही भीतर धुंआते
अलाव से खीरा
फैंक देता हूँ तुझ पर
मुझे नहीं दिखता
तेरा झुलसना
पर हाँ
फफोलों भरी अपनी हथेलियां तो
रगड़ ही देता हूँ तुझ पर
और तू
तब भी बना रहता है
निरा घोंघा-वसंत!
सितम्बर’ 78