अरे पुरुषजन! (आल्हा) / उमेश चौहान
अल्प ज्ञान है, करौं अल्पता, कहौं अल्प स्त्री-दुखु गाय।
जो है जननी, जो है भरनी, कस वह छली नित्य ही जाय॥
नारि ताड़ना कै अधिकारी, तुलसी कहा यथारथु गाय।
आँचरु दूधु आँखि माँ पानी, कहा मैथिलीशरण बुझाय।।
मरद-जाति कै मरी चेतना, अबला कथा कही ना जाय।
किंतु जागरत होइ कुछु नारी, निज विमर्श अबु रहीं सुनाय॥
यहि विमर्श का पुरुष न बूझइ, सूझइ कहूँ न सम व्यवहार।
अहं भावना मन पर हावी, देवै सबै तर्क दुतकार॥
कहैं देवता बसैं हुँआ, जहँ, नारी का नित्य होय सम्मान।
किंतु आचरनु एकदम उलटा, पल-पल करैं नारि अपमान॥
प्रेम-विटप विश्वास-बीज ते अँकुरै, बढ़ै, खूबु हरियाय।
फूलै-फरै, तुष्टि उपजावै, नई सृष्टि का करै उपाय॥
पर जब कटै विवेक-मूल तौ डार-पात सब जायँ सुखाय।
अविश्वास कै अमरबेलि चढ़ि चूसै प्रेम-द्रव्य इठलाय॥
जैसे आँखिन माड़ा छावइ, वैसइ दृष्टि-नाश होइ जाय।
नारि-दुर्दशा का निमित्त बनि, पुरुष रहा केतनौ दुखु पाय॥
बिटिया घर माँ होय न पैदा, यहिके केतनेउ करै उपाय।
तरह-तरह कै औषधि-गोली, झाड़-फूँक माँ रकम लुटाय॥
द्याखै नित चाइनीज कलंडर, करै मिलन तरकीब भिड़ाय।
परखनली माँ वीर्य फेंटिकै, नर-शुक्राणु रहा बिलगाय॥
लिंग-परीक्षण करै भ्रूण का, गर्भपात का करै उपाय।
जनम ते पहिले मारै बिटिया, यहि ते अधम कहाँ कछु भाय॥
यहि साजिश ते बचिकै कौनिउ कन्या जनमु लेय घर आय।
छाती पीटै सासु बहुरिया का दस बातैं रोजु सुनाय॥
जैसे-जैसे बड़ी होय वह, घर माँ चिंता जाय समाय।
तरुणी होतै बनै जेलु घर, बाहर जस डकैत मँडराय॥
खेतु-पात, स्कूल, मोहल्ला, ताना फब्ती परै सुनाय।
राक्षस पुरुष चहूँ दिसि घूमैं, गाथा सुनि करेजु फटि जाय॥
साथ पढ़ैया, ज्ञानु सिखैया, द्याह रखैया सबै लबार।
कहाँ सुरक्षित है हियाँ नारी, भारी सजा भोग-दरबार॥
कोर्ट-कचेहरी, थाना-शासन, सब ढिग चुवै पुरुष कै लार।
अस्पताल माँ, चलति कार माँ, इज्जति लुटै भरे बाजार॥
व्याह-योग्य होवै तौ रोवइ, बिनु दहेज कहँ मिलइ भतार।
कर्जु-कुर्जु लै जब सब निपटै, ताना तबौ सुन नित चारि॥
आपन मातु-पिता, घरु छूटै, पति घर बसइ मोहु सब त्यागि।
तबौ सहइ कहुँ थप्पड़ु-गारी, जरइ कहूँ लालच कै आगि॥
प्रसव-वेदना सहै दुसह वह, पालइ पूत नौकरी छाड़ि।
भेदु-भाव सदियन ते झ्यालइ, मन कै व्यथा मनै माँ गाड़ि॥
खून के आँसू रोवइ नारी, काटइ ककस बहेलिया का जाल।
कैसे उड़इ संगठित होइकै, अपनि अस्मिता करइ बहाल॥
स्वेच्छाचारी, स्वारथु भारी, हारी पुरुष-चेतना आज।
मानैं नारी है बेचारी, तबौ न लागइ कौनिउ लाज॥
जैसे खुशबू व्यर्थ हवा बिन, बिन खु्शबू न फूलु मन भाय।
वैसइ नाता नर-नारी का, टूटै तौ अनर्थ होइ जाय॥
'जिय बिनु देह', 'पुरुष बिनु नारी', तुलसी कहा उलट कुछु गाय।
बिनु कन्या कहँ कोमलताई, नारी बिनु कहँ पुरुष सोहाय॥
अरे पुरुषजन! उठौ आजु, अब करौ न कौनौ सोचु-विचार।
समय आइगा परिवर्तन का, संसकार सब लेउ सुधारि॥
नई चेतना जगै देश माँ सबका मिलइ न्याय-अधिकार।
नई डगरिया, नई बयरिया, बहै नई समता कै धार॥
मुक्त होउ संकीर्ण सोच ते, तजौ घृणित व्यभिचार-विचार।
मनुज जाति का अमिरितु नारी, जेहिते होय सृष्टि-संचार॥
नर-नारी वहि रथ के पहिया, जेहि पर चढ़िकै चलै समाजु।
एकै गति ते दूनउ चलिहैं, तबहीं पूर्ण होइ सब काजु॥
आँखीं ख्वालौ, अब ना ड्वालौ, ब्वालौ एक कंठ ते आजु।
नर बिनु नारि, नारि बिनु नर कहँ, अग जग करैं दोउ मिलि राजु॥