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अरे बाप रे इत्ता पानी? / प्रेम गुप्ता 'मानी'

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उठो,
रोते हुए बच्चों
अपने टूटे हुए घरौंदे की ओर मत देखो
रेत के घरौंदे ठहरते कहाँ हैं
याद करो,
खेल-खेल में इसे कितनी बार बनाया
और कितनी बार
ज़मीनदोज किया लहरों ने?
पर तुम हारे कहाँ
ठीक ज़िन्दगी की तरह
उठो, थके हुए बच्चों
पल भर ही तो ठहरी थी हवा
बरसों बाद
ठंडी लहरों को पाँवों से ठेलते
माता-पिता
एक अबोध बच्चे की तरह दिखे थे
एकदम बेख़बर
उदण्ड लहरें
इतिहास के पन्ने पर
एक नई कहानी रच रही थी
मछुआरों की नावें
धरती की तरह् गोल-गोल घूमती
कौन-सा 'खेल' खेल रही थी?
शायद,
हरा समुन्दर-गोपी चन्दर
बोल मेरी मछली-कित्ता पानी?
उठो अनाथ बच्चों
राहत कैम्प की ओर जाओ
और हाथ में
चार बिस्किट लिए
तस्वीर से निकलती बच्ची की ओर देखो
वह पूछती है तुमसे
क्यों छेड़ा प्रकॄति-समन्दर को?
उठो बच्चों-खेल ख़त्म नहीं हुआ
ज़िन्दगी फिर लौट रही है
नई ख़ुशियों के साथ
उठो,
उसका स्वागत करो
देखो
उजड़े घरौंदे पर बैठी चिडिया
धीरे से चिंहुकी है-
'हरा समन्दर-गोपी चन्दर
अरे बाप रे-इत्ता पानी? '