भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अरे मन, तू कछु सोच-विचार / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
(राग कौसिया-ताल कहरवा)
अरे मन, तू कछु सोच-विचार।
झूठौ जग साँचौ करि मान्यौ, भूल्यो फिरत गँवार॥
मृग-जिमि भूल्यो देखि असत जल, मरु धरनी बिस्तार।
सून्याकास तिरवरा दीखत, मिथ्या नेत्र-विकार॥
रसरी देखि सरप जिमि मान्यो, भय-बस रह्यो पुकार।
सीप माहिं ज्यों भयो रौप्य-भ्रम, तिमि मिथ्या संसार॥
स्वप्न-दृस्य साँचे करि मानत, नहिं कछु तिन महँ सार।
तिमि यह जग मिथ्या ही भासत, प्रकृति-जनित खिलवार॥
जो यातें उद्धार चहै तो, हरिमय जगत निहार।
मायापति की सरन गहे तें, होवै तब निस्तार॥