भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अर्थयान / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पीछा करते हुए
लम्बे-लम्बे बिजली के खम्भे,
सम्भवतः पा चुके प्रेत लीला का
पहला पड़ाव,
आन्तरिक अजानी तपन से
जलने लगा है मेरा मस्तक
अप्रत्याशित, स्वतः चालित ब्रेक लगने से
रुक गये हैं पाँव,
इस दुराहे पर आकर
ठहर गईं आँखें
दिखते हैं: ट्रकों में भरे हुए सुरक्षा-सामान
अम्यूनीशन लादे पटरियों पर दौड़ती
माल गाड़ियाँ
क्षेप्यास्त्रों से लैस आसमान में लटके
हवाई जहाज,
विस्फोटक गड़गड़ाहटों से भयाक्रान्त-
औरतों की तरह कानों में उँगली डाले
सुन्न हवाएँ
कटे तरबूज की फाँकों से
लाल-लाल नर-मुण्डों को
बिछाकर
अट्टहास करता महाकाल,
उड़ते हुए हाथों से फील्ड अस्पतालों को
पुकारती लाशें,
और फिर
मध्यकालीन तलवार की नोंक-सा
अ्टहास
मेरी पीठ में धँस गया है,

उफ!
रक्तस्राव
चटखता दर्द, अनगढ़ कराह
मूर्च्छना और
बनते-मिटते होठों पर शब्द-रंग
हल्की बुद् बुद् ....
फिर अर्थ-यान पर चढ़े शब्द:
मैं देख रहा हूँ
मरुस्थलों के गर्म बदन पर हरियाली बाँधती हुई नहरें
फसलें आमन्त्रित करते-
ट्यूबवेल्स
लक्ष-लक्ष शतलक्ष वस्त्र जन्मते यन्त्र
तेजो प्रभावमय
ज्ञान-केन्द्र
रचते नवयुग के
ऋचा-मन्त्र।