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अर्थहीन नहीं है सब / प्रताप सहगल

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जब ज़मीन है
और पाँव भी
तो ज़ाहिर है
हम खड़े भी हैं।
जब सूरज है
और आँखें भी
तो ज़ाहिर है
प्रकाश भी है।
जब फूल है
और नाक भी
तो ज़ाहिर है
खुशबू भी है
जब वीणा है
औन कान भी
तो ज़ाहिर है
संगीत भी है
जब तुम हो
और मैं भी
तो ज़ाहिर है
प्रेम भी है
जब घर है और
पड़ोस भी
तो ज़ाहिर है
समाज भी है
जब यह भी है
और वह भी
यानी नल भी
जल भी और घड़ा
भी
तो ज़ाहिर है
घड़े में जल है
अर्थ की तरह
आदमी है समाज में
हर प्रश्न के
हल की तरह।