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अर्धरात्रि की उस दुनिया में / इवान बूनिन

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अर्धरात्रि की उस दुनिया में
था मैं निपट अकेला
नींद दूर थी आँख से मेरी
आई सुबह की बेला
सागर दीवाना गरज रहा था
दूर कहीं बेतहाशा
ओजस्वी थी, तेजस्वी थी,
उत्सवी थी उसकी भाषा

तब अकेला मैं ही मैं था
उस ब्रह्माण्ड में सारे
सबका रब भी जैसे मैं था
सिर्फ़ मुझे मिले इशारे
सिर्फ़ सुनाई दी थी मुझको
वह आवाज़ अनोखी
उभरी थी उस गहराई से जो
जहाँ गूँजे ख़ामोशी

(06 सितंबर 1938)

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय