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अर्पण-समर्पण / विमलेश शर्मा

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ईश्वर ने एक उनमने जीव से कहा-
" जा! मैं तुझको लौटाता हूँ
जीवन में! "
कि, जा!
तुझ पर एक विशेष दिन
आसमानी रहमतें मोहित हों बरसेंगी धारासार
और तू फिर-फिर प्रवहमान होगा जीवन-धारा में अविचल!
श्रद्धा के उन पुनीत पलों में
तुझे जीवन रस का ज्ञान होगा
कि संसार, असार-सार
यहीं चिंतन और यहीं चिंता

यहीं फूल और यहीं
झर-झर झरता पर्णहीन पतझर!

मेघगर्जन कर उस पीताम्बरी ने फ़िर कहा कि
समुद्र का यह
ज्वार उर के घाव पर मलना और जानना!

यही जीवन है!
यही उत्सव है!
यही यात्रा है!

मैं सब नतशिर सुनती रही!
वह दिन आया और खिलखिलाकर लौट गया

बोल जो दिन विशेष पर झरे थे
नैनमेघ बन एक राग में
अब सतत बरस रहें हैं!

पलक कुंज में इस साँझ
एक कोयल देर तक कूकती रही
और इस झुटपुटे में
वे शब्द नीले होते आकाश में अमलतास-से चमकते हैं!

तीर्थ से बीते इस दिन में
प्रेमिल हवा बताती रही कि
कैसी जीवन-गति
और कैसे हम अविचल!

अरावली की तलहटी में
आषाढ़ के अंतिम दिन से
यूँही भीग रहा है, एक दिन!
और अगले आषाढ़ तक
वह अर्थना करता रहेगा–

" इस सँझवाही सावणी पवन से
ऐसी ही कजरी हरिण बदलियों का
सावन की पहली बारिश का
और ऐसे ही नेह-भीगे गाछ दिन का! "