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अर्पण करते जायें / प्रेमलता त्रिपाठी
Kavita Kosh से
देश निराला सबसे अपना, अर्पण करते जायें ।
लेकर आते द्वेष नीति जो, स्नेहिल बनते जायें ।
शिखर सम उठे यथा दिनमान,प्यारा तनमन जीवन,
अंग तरंगित मँह मँह महके, राही बढ़ते जायें ।
शाम सुरमई झिल-मिल तारे,लेती नींद पाँखुरी,
छिटकती चंद्रिका दुलराये, सपनें बुनते जायें ।
राम कृष्ण की पुण्य भूमि यह,सुंदर चंदन मधुबन,
यह गौरव इतिहास हमारे, सदा महकते जायें।
क्यों कटुता कर क्षार बनाये,शूल हृदय में बोकर,
जगा हृदय विश्वास प्रेम को,तन-मन सजते जायें ।