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अलकतरा / सुबोध सरकार / मुन्नी गुप्ता / अनिल पुष्कर

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मेरे सात दिनों के लिए सात गँजी<ref>बनियान</ref> ख़याल से धुली रहें
पहनी हुई गँजी मैं पहन नहीं पाता

वहीं सुबह से दूध का पैकेट पड़ा हुआ है फर्श पर
यह क्या कोई घर है ?

इसी को लेकर बारी-बारी से पाँच बार पाड़ा<ref>इलाके</ref> में आए, क्या चाहते हैं वे ?
असह्य ! कह दो मैं नहीं हूँ घर पर ।

बहुत दिनों से मैंने किसी पाखी की आवाज़ तक नहीं सुनी
माथे के पीछे सिर्फ़ खुजली होती है, कहीं घाव तो नहीं हो जाएगा ?

मेरी दवा कहाँ है ? खाने की टेबल पर रखने में क्या जाता है
खाने की टेबल से वह खोएगी तो नहीं ।

नल में आधे घण्टे भी पानी नहीं रहता बाड़ी वाले से बोलना होगा
लेकिन मुझसे नहीं होगा, बाड़ी वाले<ref>मकान मालिक</ref> से बात करने के लिए मेरा जन्म नहीं हुआ ।

इसी बीच एक दिन मैं कहीं से अलकतरा लगाकर घर लौटा
सारी रात तुम वह अलकतरा<ref>कोलतार या तारकोल</ref> साफ़ करती रही हाथ-पैर से ।

लेकिन मैंने धमकाते हुए कहा अब और नहीं साफ़ करना होगा, हटो
इस तरह से घिस-घिस कर तो तुम चमड़ी उतार दोगी ?

बहुत दिनों से मैंने किसी पाखी की आवाज़ नहीं सुनी
बहुत दिनों तक पाखी की आवाज़ न सुनने पर आदमी का एकतरफ़ ख़राब हो जाता है

मेरे लिए तुम मत रो मेरा तो दोनों तरफ़ ख़राब हो गया है
मेरे शरीर से अलकतरा अब कभी भी साफ़ नहीं होगा ।

मूल बाँग्ला से अनुवाद : मुन्नी गुप्ता और अनिल पुष्कर

शब्दार्थ
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