भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अलगनी पर धूप के टुकड़े / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
अलगनी पर
धूप के टुकड़े टँगे हैं
कुछ पराये-अज़नबी हैं
कुछ सगे हैं
ओस-भीगे
और अलसाये सबेरे
बीच की दीवार से
लटके अँधेरे
आँख-मींचे देखते हैं
अधजगे हैं
छाँव में लेटे हरेपन
काँपते हैं
रात-दिन की दूरियों को
नापते हैं
कुछ खुले हैं
और कुछ चेहरे रँगे हैं