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अलगोजा / अनिल मिश्र
Kavita Kosh से
एक बांसुरी से झरने निकलते हैं
दूसरी से नदियां
एक ने साधा समय है
एक ने नक्षत्र की गतियां
मरु की सांसों का चलते रहना
रोज का उधम
अँधेरी रात को काटते
सुबह तक
टांकना चांद तारे
घर की छतों पर
लय भरी ऋतुएं सजाना
पिचकारियों से निकले
कि जैसे रंग फूलों के
हो रहे जैसे मुलायम
झाड़ियों के कड़े काँटे
दिशाओं के बसन पर
छप गया है
सांस का पक्का इरादा
दर्द सा कुछ कढ़ रहा है
नशा धीरे चढ़ रहा है