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अलग रहकर / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

कोहनियों के बल अधलेटे
चादर बिछाकर
पार्क में सेंकते धूप
समय है, उनके पास
आनंद लेने के लिए
लेकिन मेरे समय में
हवा में हिलते हाथ/चलाते शब्दों की बंदूकें
धूल खाती फाइलें
झरती समय की चोटों से
कैसे देखूँ सौंदर्य
कैसे सँूघँ, गंध, सोंधी मिट्टी की
कैसे सहलाऊँ नरम ढेले
क्या संभव है
जीना प्यार के बिना
लेकिन बंदिशें हैं
माफ करो उन्हें
बनायी है जिन्होंने व्यवस्था
माफ करो
क्योंकि और करोगे भी क्या?
माफ करोगे तो
मुक्त करोगे तो
मुक्त हो जाओगे तुम ही
रह पाओगे इसमें
अलग रहकर इससे।