भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अलग हैं चाहने वाले कई तो घर उठा लाए / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
अलग हैं चाहने वाले कई तो घर उठा लाए
जिन्हें यह रास न आया तो वो खंजर उठा लाए
मुझे तो स्वाति की दो-चार बूंदों की जरूरत थी
ये लाए भी तो क्या लाए जो तू सागर उठा लाए
सुना था चाँद पर दादी वहाँ तकली चलाती है
वहाँ पहुँचे भी तुम लेकिन यहाँ पत्थर उठा लाए
बड़े ही शौक से अपना ये दिल दे आए थे तुमको
तुम्हारी बेरुखी ही देख कर आखिर उठा लाए
मेरी वीरानगी दिल की न जानी थी न जाएगी
मेरे क्यों वास्ते तुम स्वर्ग का मंजर उठा लाए
कहाँ तब ढूँढते हम उड़ गया जो है कबूतर को
बस इस दिल को तसल्ली के लिए ये पर उठा लाए
बिगाड़ेगा ही महफिल को कहेगा बेतुकी गजलें
तुम्हें लाना ‘अनिल’ को था ये ‘अमरेन्दर’ उठा लाए।