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अलमस्त हूं / विष्णुचन्द्र शर्मा
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नदी
का कोई
पर्याय नहीं बचा है
जीवन में।
फिर भी
मैं
नदी में तैरते हुए
गहरी डुबकी लगा कर भी
नदी नहीं
बना हूँ।
मेरे कमरे की
कटी-पिटी धूप से
साबुत
और बड़ी है
यहाँ की धूप!
जरूर यह
आकाश की धूप
अलमस्त है
धूप को
आकाश
पाट नहीं
सका है
मैं
वही अलमस्त धूप हूँ।
-पारी, 17.7.2009