अलविदाएँ / राजेन्द्र प्रसाद सिंह
आँखें भर निहार लूँ
हरे-भरे पहाड़ों को,
ये मेरे शैशव के कल्पना-निलय हैं;
अब तक जिनके न द्वार खुले, बंद वातायन रहे पहेली – जैसे,
उन्हें टूट हारती उसाँसों से
अलविदा !
बाँहें भर भेंट लूँ
तरंगाकुल नदियों से,
ये सब मेरे ही कैशोर की पुकारें हैं;
जिनका उत्तर न कभी गूँजा है,-
उन्हें भी अधीर संकेतों से
अलविदा !
गले-गले मिल लूँ
इन बादियों की हवा से,
यह मेरे यौवन के सपनों की रखवालिन,
समतल ने जिसका
कभी मोल नहीं आँका,-
उसे धडकनों से अभाव-भरी
अलविदा !
भाव भर सहेज लूँ
अजाने बन फूलों को,
ये शायद मेरे भविष्य के गवाह हों,
जिन्हें हार बनने की वांछा कभी नहीं,-
उन्हें हेरती कृतज्ञ आँखों से
अलविदा !
प्राणों में समेट लूँ
अछूती नीलिमा को ही,
यही तो मेरी सार्थकता की चुनौती है,
सिमट-सिमट आती जो
शिखरों की बाँहों में,
फैल-फैल जाती जो
समतल की राहों में,
लहरों की छाँहों में,-
उसे साथ लेकर आसंगियों को
अलविदा !