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अलसुबह ही मेरा घर / सत्यनारायण सोनी
Kavita Kosh से
रात फिर आंधी आई
घर भर गया सारा
कोना-कोना अट गया धूल से ।
बच्चों की माँ
आज भी भन्नाई कुदरत पर-
'आग लागै रै ईं आंधी गै!'
अलसुबह ही
बेटी लगा रही है झाड़ू
और पत्नी मार रही है पोंछा
पहले जिसने पीट-पीट खाटों को झड़काया ।
मैं झड़क चुकी खाट पर आराम से लेटा
इस इंतजार में कि
घर की धूल निकल जाए तो
घुस जाऊँ नहानघर में
और अपने बदन की भी निकालूँ...
बाँच रहा हूँ चँद्रकांत देवताले की कविताएँ
बड़ा बेटा बाँच रहा अख़बार इत्मीनान से
और छोटा निकल गया है खेलने बाहर ।