भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अलाव / अग्निशेखर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहुँच गए थे हम
निबिड़ रात और बीहड़ अरण्य में
जलाया सघन देवदारों के नीचे
                    हमने अलाव
तप गया हमारा हौसला
सुबह होने तक रखा तुमने
मेरे सीने पर धीरे से
अपना सिर
स्मृतियों से भरा
विचारों से स्पंदित
और स्वप्न से मौलिक
भय और आशंकाओं के बीच
सुनी तुमने
मेरी धडकनों पर तैर रही
फूलो से भरी एक नाव
मेरे जीवन-लक्ष्य की तरफ जाती हुई
इस निबिड़ रात और बीहड़ अरण्य में
सूरज के उगने और पंछियों के कलरव के साथ
बदलने जा रहा था संसार
समय की सदियों पुरानी खाइयों
गुफ़ाओं में
उतरने वाली थी रौशनी

पेड़ के खोखले तनों में
हमें खेल-खेल में जा छिपना था कुछ देर
बातें करनी थीं अनकही
और मन किया तो करना था प्यार भी
नैसर्गिक
फ़िलहाल
सुबह का इंतज़ार था
और मै अपने सीने पर
महसूस रहा था तुम्हारी साँसें
तुम्हारी नींद
                 और हाथ तुम्हारा

शायद
इस निबिड़ रात और बीहड़ अरण्य में
हम बचा रहे थे इस तरह
अपनी स्मृतियाँ
विचार अपने
और स्वपन भी

हमने बुझने नही दिया अलाव