भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अलोकतंत्र / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
जो कहते हैं सब जमीन तो जोरों की है
उसकी मति है क्षुद्र, नहीं पाहन चकमक है
जन्म लिया है, तो जमीन पर सबका हक है
माला तो फूलों के संग में डोरों की है ।
जिसकी जितनी माँग, जरूरत जिसकी जैसी
उसको उतनी भूमि, हवा, जल देना होगा
और नहीं तो पाप अनय का लेना होगा
लिंग-भेद या वर्ण-भेद की ऐसी-तैसी ।
जहाँ खटे बालक-बूढ़े, बेकार युवक हों
वहाँ शान्ति का राज न होगा, कलह मचेगा
शासन वह जैसा भी होगा, नहीं रुचेगा
उस शासन के तामझाम पर आगिन बरसे !
क्या होगा भारत का, श्रम भोले अवधू का ?
खेतों में अब लगे कृषक ही, खड़ा बिजूका ।