अलौकिक राधा-माधव-प्रीति।
अग-जग तें सब भाँति बिलच्छन रस, रुचि, रति, परतीति॥
दोउ दोउन कौं नित्य रिझावत, दोउ दोउन के हेत।
करत त्याग नित, नहीं लेस अभिमान, बिमल सुख देत॥
निज आवश्यकता-सुख, निज गुन, तनिक न आवत याद।
प्रिय सुख पहुँचावन अयोग्यता लखि नित करत बिषाद॥
होत सँजोग नित्य बिछुरन में, होत सँजोग बियोग।
बिछुरन-मिलन न लोक-सरिस, अद्भुत बियोग-संजोग॥
राग अनंत नित्य रस में नित, भोग-बिराग अनंत।
राग-बिराग-रहित रसनिधि नित, राग-बिराग अनंत॥
भोगरहित वह भोग-सहित राधा-माधव-रति रूप।
लखि पावैं न कबहुँ लौकिक दृग-मन-मति, दिय अनूप॥