भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अल्फ़ांजों / सरोज कुमार
Kavita Kosh से
बन्ने मियाँ के यहाँ
रत्नागिरी का
हापुस आम अल्फ़ांजो
इस बार गजब का आया!
पर महँगा काफी था,
खाने की ललक भी कम नहीं!
मित्र के साथ पहुँचा
भाव पूछा, बहस की
सौदा नहीं पटा!
बन्ने मियाँ ने कहा-
बाबूजी ,
जीतने की खरीद है
उससे कम में आप चाहें,
सरासर ना-इंसाफ़ी है
मुझ पर ब भरोसा कीजिए!
बुझा-बुझा लौट पड़ा
मित्र को समझाते हुए
कि इन लोगों को
राष्ट्रीय धारा से जोड़े बिना
अपने अल्फ़ांजो नहीं खा पाएँगे!