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अल्फाज़ों के भरोसे ही नहीं / अशेष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
अल्फाज़ों के भरोसे ही
नहीं रहिये साहब
कभी ज़ुबाँ पर कुछ तो
दिल में कुछ होता है...
आँखें कहाँ हर वक्त
सच ही देखती हैं
कभी जो दिखता है
वैसा नहीं होता है...
कान भी कहाँ सदा
ठीक ही सुनते हैं
कभी जो सुनते हैं
वैसा नहीं होता है...
लोग जो दिखते हैं
बहुत ही करीब
बहुत ज़्यादा ही उनसे
फ़ासला होता है...
किस के दिल में
क्या चलता है
सूरत से हर दम
बयाँ नहीं होता है...
किस को किस वक्त
क्या बुरा लग जाता है
ये हमेशा सब को
पता नहीं होता है...
मरुस्थल में प्यासे को
जो दिखता है पानी
हक़ीकत में वह मृग
मरीचिका होता है...
गैर जो लगते हैं कभी
वही वक़्त पर काम आते हैं
जब अपना कोई साथ
खड़ा नहीं होता है...
तुम्ही को बहुत मैं
याद करता हूँ
जब कोई और सहारा
नहीं होता है...