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अल्मोड़ा-साहित्य / मृणाल पांडे
Kavita Kosh से
हरी ‘व्यथित’ औ’ नरी ‘अकेला’ कभूं कभूं
लब खोलै थे,
जब जब धीयां पास गुजरतां, ‘मर गए जानी’
बोलै थे ॥
हरित ‘सशंक’ औ’ मोहन हुड़किया सबकी
अपनी थी औकात,
अपने-अपने छंद छतरपति बन बन होली खेलैं
थे ॥
फितरत उनकी ‘पंत’ , ‘निराला’ , किस्मत उनकी
क्लर्काई ,
खुदै लिखैं औ’ खुदै छपाएं , खुदै उसी पै बोलै
थे ॥
घर की बहुआं कभी-कभी जब बैठक कमरा
झाड़ै थीं ,
मार झपाका गड्डी-गड्डी कविता-फविता फाड़ै
थीं ॥