भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अल्मोड़ा-साहित्य / मृणाल पांडे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हरी ‘व्यथित’ औ’ नरी ‘अकेला’ कभूं कभूं

लब खोलै थे,

जब जब धीयां पास गुजरतां, ‘मर गए जानी’

बोलै थे ॥


हरित ‘सशंक’ औ’ मोहन हुड़किया सबकी

अपनी थी औकात,

अपने-अपने छंद छतरपति बन बन होली खेलैं

थे ॥


फितरत उनकी ‘पंत’ , ‘निराला’ , किस्मत उनकी

क्लर्काई ,

खुदै लिखैं औ’ खुदै छपाएं , खुदै उसी पै बोलै

थे ॥


घर की बहुआं कभी-कभी जब बैठक कमरा

झाड़ै थीं ,

मार झपाका गड्डी-गड्डी कविता-फविता फाड़ै

थीं ॥