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अल्लह रे कैफ़े-लम्स किसी पाए-नाज़ का / मेला राम 'वफ़ा'

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अल्लह रे कैफ़े-लम्स किसी पाए-नाज़ का
है अर्श पर दिमाग़ ज़बीने-नियाज़ का

सौ आरज़ों का आरजा है साल खुर्दगी
उम्रे-दराज़ नाम है मर्गे-दराज़ का

होते ही होते होगी हक़ीक़त ज़हूर-याब
उठते ही उठते उट्ठेगा पर्दा मिज़ाज के

मग़रिब से उठ के आई है बरसात की घटा
फ़तवा हरम से लाई है मय के जवाज़ का

ऐ शैख़ बन्दगी का सलीक़ा तो सीख ले
हो जा नियाज़ मन्द किसी बे-नियाज़ का

मस्ती में बे-दरंग बक उट्ठा तो क्या अजब
'मंसूर' ये भी अहल न था ज़ब्ते-राज़ का

रखते तो हैं निगाह में वो ऐ 'वफ़ा' मुझे
मैं क्यों गिला करूँ सितम-ए-इम्तियाज़ का